मौसम की तब्दीली झिलती नही
हल्की सर्दी तबियत नासाज़ कर जाती है
दवा की गोलियां खाने लगा हूँ
मैं भी अब थकने लगा हूँ
शायद बूढ़ा होने लगा हूँ
शबभर की महफ़िलें रास नही आती
घर का बिस्तर ही सुहाता है
मयकशी से किनारा करने लगा हूँ
मैं भी अब थकने लगा हूँ
शायद बूढ़ा होने लगा हूँ
साया भी एक ज़माने से ख़फा है
वस्ल की ख्वाहिश नहीं होती
आवारा मोहब्बत को भुलाने लगा हूँ
मैं भी अब थकने लगा हूँ
शायद बूढ़ा होने लगा हूँ
कौम के हर मसले से थी वाबस्तगी
गिर्द-ओ-पेश पे रहवे थी नज़र
सियासी मुबाहिसों से बचने लगा हूँ
मैं भी अब थकने लगा हूँ
शायद बूढ़ा होने लगा हूँ
मौत का दिन तो मुकर्रर है
बस बिस्तर में वफ़ात ना हो
बिखरती सेहत से डरने लगा हूँ
मैं भी अब थकने लगा हूँ
शायद बूढ़ा होने लगा हूँ
~आवारा~
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